पिछले 41 सालों से वर्ष 2016 तक भारत के शिशु मृत्यु दर (आईएमआर) में 68 फीसदी की गिरावट दर्ज की है। लेकिन प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर 41 मौतों का आईएमआर अभी भी गरीब पड़ोसी देशों जैसे बांग्लादेश (31) और नेपाल (29) से भी बदतर है। आंकड़े बच्चों के लिए एक राष्ट्रीय स्वास्थ्य कार्यक्रम के हैं।
एकीकृत बाल विकास योजना (आईसीडीएस) को शुरु हुए 42 वर्ष बीत चुके है। देश की अर्थव्यवस्था के साथ मुकाबला करने के लिए स्वास्थ्य सेवा के क्षेत्र में होने वाले सुधार में भारत की असमर्थता से योजना पर सवाल खड़े होते हैं।
यहां यह जान लेना भी जरूरी है कि वर्ष 1975 से 2016 के बीच अर्थव्यवस्था में 21 गुना वृद्धि हुई है। साफ है, अर्थव्यवस्था में विकास हुआ, स्वास्थ्य के मोर्चे पर हम पिछड़ते चले गए।
2 अक्टूबर, 1975 को शुरु की गई इस योजना का लक्ष्य विद्यालय पूर्व और गैर-औपचारिक शिक्षा प्रदान करने तथा स्वास्थ्य के मोर्चे पर लड़ने का था, जैसे कुपोषण, विकृति और मृत्यु दर के चक्र को तोड़ना।
मार्च 2017 को लोकसभा में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने कहा है कि दिसंबर 2016 तक भारत के आईसीडीएस देश भर में 9.93 करोड़ लाभार्थियों तक पहुंच गया है और आंगनवाड़ी केंद्रों की संख्या 0.14 करोड़ है।
प्रभाव
पिछले 41 वर्षों में भारत ने अपने शिशु मृत्यु दर (आईएमआर, प्रति 1,000 जीवित जन्मों पर मृत्यु) में 68 फीसदी की गिरावट की है। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक, यह आंकड़े 1975 में 130 से गिरकर 2015-16 में 41 हुआ है।
फिर भी, भारत के प्रति 1,000 जीवित जन्मों में 41 मृत्यु का आईएमआर गरीब पड़ोसी देशों जैसे बांग्लादेश (31),नेपाल (29) और अफ्रीका के रवांडा (31) से भी बदतर है। यहां तक कि पांच वर्ष की आयु के भीतर, प्रति जीवित जन्मों पर 50 मौतों की मृत्यु दर भी चिंताजनक है। यह दर नेपाल में 36, बांग्लादेश में 38 और भूटान में 33 है, और इन सब छोटे देशों से हम पिछड़े हुए हैं। इस बारे में इंडियास्पेंड ने मार्च 2017 की रिपोर्ट में बताया है।
इसके अलावा, पांच वर्ष की आयु के भीतर भारत में स्टंड ( आयु के अनुसार कम कद ) बच्चों की संख्या करीब 4 करोड़ है। यह संख्या दुनिया के किसी भी अन्य देश की तुलना में सबसे ज्यादा है। हालांकि, वर्ष 2005-06 और वर्ष 2014-15 के बीच बाल स्वास्थ्य पर खर्च में 200 फीसदी की वृद्धि हुई है।
धन का आवंटन
वर्ष 2017-18 में यूनियन बजट में आईसीडीएस आवंटन में 4.7 फीसदी की वृद्धि हुई है, जो वर्ष 2016-17 में 14,560 करोड़ रुपए से बढ़ कर 2017-18 में 15,245 रुपए हुआ है। लेकिन इसमें वर्ष 2015-16 के दौरान आवंटन में कटौती थी।
‘सेंटर फॉर गर्वनेंस एंड बजट एकाउंटब्लिटी’ द्वारा किए गए बजट विश्लेषण के अनुसार, “. भारत में कुपोषण की गंभीरता को देखते हुए, संघ और राज्य स्तर पर अधिक आवंटन की आवश्यकता है। इसके अलावा, अतिभारित आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं के काम का बोझ कम करने और कार्यक्रम के तहत विभिन्न सेवाओं के समर्थन में उनकी क्षमता में सुधार के लिए एक बेहतर बजट की जरूरत है।”
सेवाओं का एकीकरण
आईसीडीएस का उद्देश्य छह से कम उम्र के बच्चों का समग्र विकास तो है ही। साथ में गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं को पोषण और स्वास्थ्य सहायता प्रदान करना भी है।
आईसीडीएस के अंतर्गत आने वाली छह सेवाएं हैं: पूरक पोषण, प्रतिरक्षण, रेफरल सेवाएं, स्वास्थ्य जांच, विद्यालय पूर्व गैर-औपचारिक शिक्षा और स्वास्थ्य और पोषण की सीख।
इनमें से तीन ( टीकाकरण, स्वास्थ्य जांच और रेफरल सेवाएं ) स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के माध्यम से संचालित होता है। बाकी सेवाओं का अभिभावक महिला और बाल विकास मंत्रालय है। समग्र रूप से प्रभाव में सुधार के लिए सेवाओं को एक साथ एकीकृत करने की जरूरत है।
अंतराल
सभी बच्चों को प्रयाफ्त सेवा नहीं मिल पाने के कारण कई रिपोर्टों में आईसीडीएस में कई तरह की कमियों का जिक्र किया गया है।
35 राज्यों के 100 जिलों में पूर्व योजना आयोग द्वारा वर्ष 2011 में आईसीडीएस के मूल्यांकन के अनुसार, कुल पात्र बच्चों के लगभग 50 फीसदी आंगनवाड़ी केंद्रों तक गए और मानदंडों के अनुसार प्रभावी कवरेज आईसीडीएस लाभ के लिए पंजीकृत लोगों का केवल 41 फीसदी है।
रिपोर्ट में कहा गया है- “आंगनवाड़ी कार्यकर्ता काम के अत्यधिक बोझ से दबे हैं , कम वेतनमान में काम करते हैं और ज्यादातर अकुशल हैं। इससे योजना का प्रभाव कम पड़ता है।”
भारत के नियंत्रक और महालेखा परीक्षक (कैग) द्वारा आईसीडीएस पर वर्ष 2012 के ऑडिट में पाया गया कि 60 प्रतिशत आंगनवाड़ी केंद्रों के पास स्वयं की इमारत नहीं थी। 25% अर्ध-पक्के / कच्चे भवनों में या आंशिक रूप से खुली जगह काम कर रहे थे।
कैग रिपोर्ट में बताया गया कि 52 फीसदी आंगनवाड़ी केंद्रों में शौचालय नहीं था और 32 फीसदी में पीने के पानी की सुविधा नहीं थी, जिससे स्वच्छता और स्वच्छता की समस्याएं पैदा हुईं है।
बुनियादी ढांचे के मुद्दों के अलावा, लेखा परिक्षकों ने पाया कि वर्ष 2006 से वर्ष 2011 के बीच 33 से 47 फीसदी बच्चों का वजन नहीं लिया गया था। साथ ही बच्चों के पोषण संबंधी स्थिति के डेटा में भी अंतर पाया गया था।
लेखा परीक्षकों ने पाया कि इस योजना से जुड़े महत्वपूर्ण पहलुओं के लिए धन जारी नहीं किया गया था और जारी किए गए धन का एक बड़ा हिस्सा वेतन में चला गया था। रिपोर्ट में यह भी कहा कि मंत्रालय द्वारा आंतरिक निगरानी और मूल्यांकन पर अनुवर्ती कार्रवाई पर्याप्त नहीं थी।
लगभग 60 फीसदी आंगनवाड़ी केंद्र अपने आपातकालीन साधनों और सेवा जैसे कि रेफरल व्यवस्था, दवाइयों और बर्तनों की कमी के लिए 1,000 रुपये प्रति वर्ष के अपने फ्लेक्सी फंड का इंतजार कर रहे थे। यह जानकारी दिल्ली की संस्था ‘सेंटर फॉर पॉलिसी रिसर्च’ द्वारा पांच राज्यों के 10 जिलों में फैले 300 आंगनवाड़ी केंद्रों के लिए वर्ष 2016 में हुए एक सर्वेक्षण में सामने आई है।
सर्वेक्षण के दौरान, 14 प्रतिशत आंगनवाड़ी केंद्रों ने अनाजों की कमी की सूचना दी और 41 फीसदी ने अनाज खरीदने में देरी की सूचना दी ।
नोट: यह रिपोर्ट सबसे पहले ndtv.com पर यहां प्रकाशित हुई थी।
यह लेख मूलत: अंग्रेजी में 3 मई 2017 को indiaspend.com पर प्रकाशित हुआ है।