By Asmad Habib for Maeeshat
भारत की आधा से ज्यादा आबादी कमजोर आर्थिक माहौल में रहती है। आजादी के इतने सालों के बाद भी इन कौमों के अंधेरे नहीं मिटते। ऐसी ही एक कौम है मुसलमानों की…
हमारे समाज में शुरू से ही मुस्लिम समाज को आर्थिक रूप से पिछड़ा माना जाता है। इसी बात को जानने के लिए बनी सच्चर कमेटी ने भी मुसलमानों के पिछड़ेपन का ज़िक्र किया था।
भारतीय मुसलमानों की अगर देश के अन्य समुदायों से तुलना करें तो देखेंगे कि वे उनसे पीछे हैं। आर्थिक, सामाजिक और शैक्षणिक सभी तरह से तीनों हालात में वे भारत की उन जातियों से भी पीछे हैं, जो अल्पसंख्यक कहलाती हैं। आज़ादी के समय सरकारी नौकरियों में मुसलमानों की संख्या ३१ प्रतिशत थी जो अब २.३ प्रतिशत रह गयी है।
मुस्लिम समाज के लोग बहुतायत में हाथ के हुनर का काम जानते है, चाहे चूडी बनाने का काम हो , बुनाई व हस्तशिल्प की कारीगरी हो हर क्षेत्र में मुस्लिम समाज अपनी कारिगरी के माध्यम से देश के उत्पादन में महत्वपूर्ण योगदान रहा है, लेकिन विषेषकर दो समस्याओं के कारण अपने उत्पादन की क्षमता को बनाये रखने में असफल रहते है एक समस्या विपणन (मार्केटिंग) की है और दूसरी समस्या बैंक ऋण (क्रेडिट) की है।
अगस्त 2013 में जेएनयू के प्रोफेसर अमिताभ कुंडू की अगुवाई मे एक कमेटी बनाई गई। इस रिपोर्ट के अनुसार 18 फीसदी से ज्यादा शहरी मुस्लिम शिक्षित युवा बेरोजगार हैं। अन्य ओबीसी के मुकाबले मुस्लिम ओबीसी मे 50 फीसदी गरीबी है। उच्च शिक्षा में तीन फीसदी मुसलमान युवा ही आते हैं। 2011-12 के नेशनल सैंपल सर्वे के मुताबिक देश में 13.8 फीसदी आबादी मुस्लिम है।
टाइम ऑफ़ इंडिया में प्रकाशित के रिपोर्ट के अनुसार देश की राजधानी दिल्ली में रोजगार को लेकर बात करें तो इसकी भी हालत ज्यादा अलग नहीं है। 11.7 फीसदी मुस्लिम आबादी वाले राज्य दिल्ली में 66.6 फीसदी मुसलमान शिक्षित हैं, जिनमें 59.1 % साक्षर महिलाएं है। दिल्ली में रहने की वजह मुसलमानों में साक्षरता की दर संतोषजनक जरूर है, लेकिन, रोजगार पाने के लिए ये भी नाकाफी है। जिसका नतीजा है कि दिल्ली में सिर्फ 30.1% मुसलमानों को ही रोजगार मुहैया है। मतलब साफ है कि मुसलमानों में साक्षरता की दर बढ़ी जरूर है, लेकिन उनके पास ऐसी शिक्षा नहीं है जो उन्हें रोजगार दिला सकें।
गांवों के 15 से 30 फीसदी मुसलमान के बच्चे अपनी पहली पढ़ाई मकतब से शुरू करते हैं, और फिर आगे की पढ़ाई मदरसा में करते हैं। सच्चर कमेटी रिपोर्ट भी ये खुलासा कर चुकी है कि 4 फीसदी मुस्लिम बच्चे आज भी फुलटाइम सिर्फ मदरसों में ही पढ़ते हैं।
इतना ही नहीं बी बी सी के रिपोर्ट में लिखा गया था मुसलमानों की हर पीढ़ी शून्य से अपना सफर शुरू करती है। और हर पीढ़ी एक ही तरह के संघर्ष करती नजर आती है।
इतना ही नहीं राष्ट्रीय अल्पसंख्यक विकास और वित्त निगम से कर्ज लेने की योग्यता बहुत सीमित है। देश के करीब 20 करोड़ अल्पसंख्यकों में से ज्यादातर गरीब हैं और आयोग ने पिछले 17 साल में स्वरोजगार के लिए सिर्फ 1,750 करोड़ रु। दिए हैं! राज्य के ऐसे निगमों की भी कमोबेश यही हालत है। यह रिपोर्ट इण्डिया टूडे ने 2012 में प्रकाशित की थी। 2014 के लोकसभा चुनावों के मद्देनज़र।
इससे पहले 2007 में मजदूर बिगुल ने 2007 में एक रिपोर जारी करते हुए बताया था कि सच्चर कमेटी की रिपोर्ट मुस्लिम आबादी की जिस दोयम दर्जे की स्थिति को सामने लाती है उसका अनुमान चन्द आँकड़ों से लगाया जा सकता है।
भारत को एक सेक्युलर राष्ट्र का दर्जा दिया जाता है, जहां कहीं न कहीं मुसलमानों के संदर्भ में कट्टर हिंदुवादी ताकतों के रवैये के कारण हिंदुस्तान की सेक्युलरिज़्म की अवधारणा खंडित होती रही है। आज मुसलमानों को जितना डर इन कट्टर हिंदुत्ववादी ताकतों से है उतना ही अपने समाज के कट्टरवादियों से भी। मुस्लिम समाज के इस अध्ययन के उपरांत यह कहा जा सकता है कि मुस्लिम समाज गरीबी, बेरोजगारी, अशिक्षा, भुखमरी, अंधविश्वास, सांप्रदायिकता इत्यादि समस्याओं से जूझ रहा है। शिक्षा में वृद्धि दर काफी धीमी है। सरकारी नौकरियों में प्रतिनिधित्व लगातार बढ़ रहा है पर यह विकास दर बहुत कम तथा चिंताजनक है।
(लेखक बिहार में पत्रकार और सामाजिक कार्यकर्त्ता हैं।)