By Maeeshat News
वर्तमान में देश में एक बदलाव आते-आते भटक गया, रुक गया या समाप्त हो गया इस बात का पता तो हमारे मौजूद हालात देखने को मिल रहा है. पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अपनी अंतिम प्रेस कांफ्रेंस में कहा कि देश की अर्थव्यवस्था 1991 की अर्थवयवस्था की जगह पर पहुंच गई है.
आज अगर शहरों में सबसे साफ दिखने वाला रोजगार के तौर-तरीकों में बदलाव है. वहां हम स्व-रोजगार में भारी गिरावट देखते हैं लेकिन मुसलमानों के मामले में यह गिरावट बाकी समूहों से अधिक तीखी दिखती है. नियमित रोजगार में बढ़ोतरी तो हुई है लेकिन उसमें एक खतरनाक रुझान दिखता है. मुसलमानों के लिए नियमित रोजगारों में ग्रामीण इलाकों में तेजी से वृद्धि हुई है, लेकिन शहरी इलाकों में वह बाकी समूहों से काफी पीछे है. हालांकि बड़े शहरों में मुसलमानों के मामले में अस्थायी रोजगारों में तेजी से वृद्धि हुई है.
वास्तव में देखा जाये तो शहरीकरण अब गरीबों के लिए काफी मुश्किल होता जा रहा है. किराए काफी महंगे हैं, घनी बस्तियां बेहिसाब बढ़ रही हैं और लचर कानून-व्यवस्था की वजह से जीवन लगातार असुरक्षित होता जा रहा है. दूसरी समस्या बेशक यह है कि शहरी रोजगार अब हुनरमंद लोगों की मांग करता है. दलित, आदिवासी और मुसलमान जैसे हाशिए के समुदायों के प्रवासी मजदूर अमूमन कोई हुनर नहीं जानते या बेमानी हो चुके हुनर में ही माहिर होते हैं. इसलिए वे हमारे शहरों के प्रतिकूल माहौल में और अलग-थलग महसूस करते हैं.
पिछले तीस साल में बिलाशक लोगों की जिंदगी सुधरी है और जीडीपी वृद्धि की लहर से भारत के अल्पसंख्यकों की जिंदगी में भी कुछ हरियाली आई है. लेकिन दलितों और मुसलमानों के मददगार बने चमड़ा और मांस निर्यात जैसे क्षेत्र देश में पाबंदियों की नई संस्कृति के शिकार हो रहे हैं. भारत भले फिलहाल थोड़े समय के लिए अतिवादी, अंतर्मुखी सोच के दक्षिणपंथी दौर से गुजर रहा है लेकिन इसके बाद मुसलमानों के लिए भी ”अच्छे दिन” आने वाले हैं.