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मुल्ला की अज़ान ओर, शहीद की अज़ान ओर ।

by | Jul 4, 2025

मिस्र के पूर्व राष्ट्रपति शहीद मुहम्मद मुर्सी इस दुनिया को अलविदा कहकर अपने रब के पास पहुँच चुके हैं जहाँ हर इन्सान को अपने किए हुए हर एक काम का हिसाब किताब देना होता है इनकी आकस्मिक मौत पर पूरी दुनिया में शदीद रन्जो-गम महसूस किया गया। मुस्लिम समुदाय के कई वर्गों ने इस हैरत अंगेज़ मौत की निंदा की, संवेदना प्रकट की और कई लोगों ने नमाज़ ए जनाज़ा भी पढी। हिन्दुस्तान में भी कई जगहों पर नमाज़ का एहतमाम किया गया। जमाअत इस्लामी से जुडे लोगों ने भी इस दर्द को महसूस कर विभिन्न तरीकों से व्यक्त किया। जमाअत इस्लामी शांतिपुरम (केरला) में,  जमाअत की केंद्रीय बैठक में  कुछ लोगों ने मुर्सी के बारे में नकारात्मक भाव प्रकट किए तो कुछ ने इन विचारों पर अपनी टिप्पणी व्यक्त की। एक साहब ने लिखा –“आज मशहूर भाईचारा” दहशतगर्द अदालत मे कार्यवाही के दौरान दुनिया से रुकसत हो गया यह कितनी अजीब बात है ? पार्टी के सदस्य जो लगातार राज्य में आतंकवाद से पीड़ित रहे हैं, हज़ारों सहयोगियों की जानें चली गई हो  2013 में सत्ता पर कब्जा करने के बाद जिस के 6 हज़ार से ज्यादा लोगों को गोलियों से भून दिया गया हो, इस पर दहशतगर्दी का इल्ज़ाम लगाया जाए, और इस शख्स को “मशहुर दहशतगर्द” कहा जाए जिससे ज़बरदस्ती सत्ता छिन कर कैद व नज़रबंद करके यातनाएं दी गई हो  फिर इस इल्ज़ाम को मान भी लिया जाए तो इससे किसी के बारे में गलत अल्फाज़ इस्तेमाल करने का हक़ मिल जाता है? यकीन नहीं आ रहा है कि कोई मुसलमान इल्ज़ाम लगाने में इस हद तक गिर सकता है?

मुर्सी की गैरमोजुदगी में पढी नमाज़े जनाज़ा को मुद्दा बना लिया गया और इसके जाइज़ और नाजाइज़ होने पर फतवों का दौर चल पडा। इस पर लोगों की अपनी अलग अलग राए है इमाम शाफी और इमाम अहमद कहते हैं किसी शख्स की गैरमोजुदगी में नमाज़े जनाज़ा पढी जा सकती है इसलिए के अल्लाह के नबी(सल्ल.) ने नज्जाशी शाहे हब्शा की गैरहाज़री  पर नमाज़े जनाज़ा पढी है। दोनों इमाम इसे एक जैसा वाकया मानते है और अल्लाह के रसूल के साथ खास करते हैं, चुनांचे इस गैर मौजूदगी की नमाज़े जनाज़ा के लिए कायल नहीं किया गया, यह बेहतर ना होता के इस मोके पर फितनाबाज़ी करने के बजाए जो लोग इसे जाइज मानते है उनको अमल करने दिया जाता। मैंने अपनी पोस्ट में मुर्सी के लिए शहीद का लफ्ज़ इस्तेमाल किया था तो एक शख्स को आपत्ति हुई कि कमरे में हुई मौत को शहादत का दर्जा कैसे मिल गया ?

मैंने अपनी बात स्पष्ट करने की कोशिश की “ कि यह सिर्फ जेल में रखने का साधारण सा मामला नहीं है मुर्सी को जेल में बुनियादी जरुरतों से महरुम रखा गया, बीमार होने पर इलाज नहीं मिला ,जो दवाइयाँ वह पहले से लेते थे वो भी वक्त जरुरत नहीं मिली इसका मतलब यह है कि इन्हें जान बूझ कर मौत की तरफ धकेला गया इस बिना पर इन्हें शहीद लिखा गया है।”

इस जवाब पर इन्हें संतुष्टि नहीं हुई तो इन्होने दुसरा कमेंट यह किया कि“शहीदों के बारे में जितनी भी राए कायम है वो अपके इस कथन से मेल नहीं खाती।”

मैंने समझाने की कोशिश की कि “हर बात को इतिहास के पन्नों पर नहीं ढूंढना चाहिए,थोडा कॉमन सेंस का इस्तेमाल करना चाहिए। किसी को गला दबा कर मार दिया जाए या किसी को बीमारी की हालत में इलाज से वंचित कर दिया जाए। दोनों ही कत्ल है एक प्रभावशाली और दुसरा अप्रभावशाली।“
इन्होंने मेरी टिप्पणी पर समीक्षा की कि यह सब हवाई बातें हैं इस्लाम में शहादत का बहुत ऊँचा मुकाम है किसी को शहीद साबित करने के लिए धार्मिक ग्रंथों में उपस्थित आलेख को मानना चाहिए। कॉमन सेंस नहीं, हमें मुर्सी का मामला अल्लाह पर छोड देना चाहिए। अपनी तरफ से शहादत का प्रणाम पत्र नहीं बाटँना चाहिए। मैंने जवाब दिया कि धार्मिक ग्रन्थ सिर्फ विधिशास्र का नाम नहीं बल्कि उनका ताल्लुक हदीस से भी है असल शहादत यह है कि कोई शख्स जंग करते हुए कुफ्फार के हाथों कल्त होए, लेकिन हदीस में कई जगह गैर प्राकृतिक मौत की भी शहादत से तुलना की गई है जैसे डूब कर मरना,पेट की बीमारी से मरना, ज़हर फैलने से मरना आदि।
साहब लगातार बहस पर बहस किए जा रहे थे, “मैंने पीछा छुडाना चाहा और कहा कि आप शहीद मानें या ना मानें, मुझे मानने दें। बहस खत्म करने से पहले इन्होनें मुझ पर इख़्वानी भक्त होने का ठप्पा लगाना ज़रुरी समझा।“

इस दुनिया में दो तरह के लोग पाए जाते है एक वह जो खौफनाक लहरों का मुकाबला करने के लिए समुंद्र की गहराईयों में जाते हैं और दुसरे वो लोग जो किनारे पर बैठ  तमाशावीन बने होते हैं। कुछ इस्लाम के प्रभुत्व को कायम करने के लिए अपनी जानों की कुर्बानी तक दे देते है तो कुछ लोग सिर्फ जबानी जमाखर्ची में उलझे रहते है। कुछ अपने खून से इस्लाम के दरख्त को परवान चढाते है तो कुछ इस पर पत्थर बरसाते है। अल्लामा इक़बाल ने ऐसे ही लोंगो के बारे में लिखा था:

अल्फाज़ व माएने में फर्क नहीं लेकिन

मुल्ला की अज़ान ओर, शहीद की अज़ान ओर

परवाज़ है दोनों की इसी एक फिज़ा में ।

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