विकल बेकार पुराने कलमबाज हैं लेकिन उनकी लफ्फाजी आमतौर पर संपादकों के पल्ले नहीं पड़ती, इसलिए उन्होंने छपास से तौबा कर लिया। मस्तमौला और हमेशा चलायमान होने की वजह से उनको अखबारों की नौकरी भी रास नहीं आई, सो अपने को बेकार घोषित करते हुए निकल पड़े देश की खाक छानने। विकलजी से हमारे संपर्क के तार जुड़े हुए हैं और वे अपनी लफ्फाजी (साप्ताहिक डायरी) न्यूजबेंच को लगातार भेंज रहे हैं।(सभार:न्यूजबेंच )
अपने देश में गरीब को छोड़िए अमीर आदमी भी मुफ्त में मिलने वाली चीज को छोडऩा नहीं चाहता। अगर कहीं मुफ्त खाने की चीज बंट रही है तो उस पर टूट पडऩे वाले सभी लोग भूख के मारे परेशान हों, यह जरूरी नहीं है। कहीं भजन हो रहा है तो वहां श्रद्धा पूर्वक जाने वाले लोग कम ही मिलेंगे पर लंगर होने का समाचार मिले तो उसी स्थान पर भारी भीड़ जाती मिल जाएगी। हमारे देश में लोकतंत्र है इसलिए लोगों में वही नेता लोकप्रिय होता है जो चुनाव के समय वस्तुएं मुफ्त देने की घोषणा करता है। वैसे देश के अधिकतर लोग समझदार हैं पर कुछ लोगों पर यह नियम लागू नहीं होता कि वह इस लोकतंत्र में मतदाता और उसके मत की कीमत का धन के पैमाने से आंकलन न करें। पानी मुफ्त मिलता है ले लो। लेपटॉप मिलता है तो भी बुरा नहीं है पर मुश्किल यह है कि यही मतदाता एक नागरिक के रूप में सारी सुविधाएं मुफ्त चाहता है और अपनी जिम्मेदारी का उसे अहसास नहीं है। कहीं किसी जगह राशनकार्ड बनवाने, बिजली या पानी का बिल जमा करने, रेलवे स्टेशन पर टिकट खरीदने अथवा कहीं किसी सुविधा के लिए आवेदन जमा होना हो वहां पंक्तिबद्ध खड़े होने पर ही अनेक आम इंसानों को परेशानी होती है। अनेक लोग पंक्तिबद्ध होना शर्म की बात समझते हैं। ऐसी पंक्तियों में कुछ लोग बीच में घुसना शान समझते हैं। उन्हें इस बात की परवाह नहीं होती कि दूसरों पर इसकी क्या प्रतिकिया होगी?
जब हम समाज के आम इंसानों को अव्यवस्था पैदा करते हुए देखते हैं तब सोचते हैं कि आखिर कौन से आम इंसान की भलाई के नारे देश में बरसों से लगाए जा रहे हैं। यह नजारा आप उद्यानों तथा पर्यटन स्थानों पर देख सकते हैं जहां घूमने वाले खाने-पीने के लिए लाए गए प्लास्टिक के लिफाफे तथा बोतलें बीच में छोडक़र चले जाते हैं। वह अपना ही कचड़ा कहीं समुचित स्थान पर पहुंचाने की अपनी जिम्मेदारी मुक्त में निभाने से बचते हैं। हमारे एक मित्र को प्रात: उद्यान घूमने की बीमारी है। वह कभी दूसरे शहर जाते हैं वहां भी वह मेजबान के घर पहुंचते ही सबसे पहले निकटवर्ती उद्यान का पता लगाते हैं। जब उनसे आम इंसान के कल्याण की बात की जाए तो कहते हैं कि खास इंसानों को कोसना सहज है पर आम इंसानों की तरफ भी तो देखो, उनमें कितने मुक्तखोर और मक्कार हैं यह भी देखना पड़ेगा। वह यह भी कहते हैं कि धार्मिक स्थानों पर जहां अनेक श्रद्धालु एकत्रित होते हैं वह निकटवर्ती व्यवसायी एकदम अधर्मी व्यवहार करते हैं।
सामान्य समय में जो भाव हैं वहां भीड़ होते ही दुगुने हो जाते हैं। भीड़ होने पर पर्यटन तथा धार्मिक स्थानों पर खाने-पीने के सामान भी मिलावटी मिलने लगता है। इतना ही नहीं धार्मिक स्थानों पर मुक्रत लंगर या प्रसाद खाने वाले हमेशा इस तरह टूट पड़ते दिखते हैं जैसे कि बरसों के भूखे हों जबकि उनको दान या भोजन देने वाले स्वत: ही चलकर आते हैं। हर जगह भिखारी अपना हाथ फैलाकर पैसा मांगते हैं। देश को बदनाम करते हैं। अरे, कोई विदेशी इन भुक्कड़ों को देखने पर यही कहेगा कि यहां भगवान को लोग इतना मानते हैं फिर भी उसके दरबार के बाहर ही अपने भूख का हवाला देकर मांगने वाले इतने भिखारी मिलते हैं।
वह इतनी सारी निराशाजनक घटनाएं लिखने बैठें तो पूरा उपन्यास बन जाए। ऐसा नहीं है कि लोग इस तरह के अनुभव नहीं कर पाए हैं या कभी लिखा नहीं है पर इधर जब आम आदमी की भलाई की बात ज्यादा हो रही है तो लगा कि उन सज्जन से उनकी बात पर लिखने का वादा ञ्चयों न पूरा किया जाए। हमारे जैसे तमाम इसी तरह मुफ्त लिखकर मुफ्त का मजा उठाते हैं।