सय्यद हुसैन अफसर
लखनऊ वाह रे लखनऊ.अपने ज़ख़्मी सीने मे न जाने कितने क़िस्से ,कहानियां और दास्ताने छुपाए दुनिया भर मे मश्हूर हुवा.मोहल्ले का इतिहास दिलचस्प और उनसे ज़यादा वहां के रहने वालों की न भुलाने वाले दास्ताने इतिहास का हिस्सा बन चुकी हैं. उन्ही मे से एक मोहल्ला मिर्ज़ा मंडी अपनी ऐतिहासिक गाथा के लिये बहुत मश्हूर हुवा.मिर्ज़ा मंडी मिर्ज़ा सलीम ने अपने पिता अकबर की हुकूमत और अपनी वलीअहदी(राजकुमार) के ज़माने मे स्थापित की यही मिर्ज़ा सलीम जब दिल्ली के तख़्त पर बिराजमान हुवा तो नूर उद्दीन जहांगीर के नाम से मश्हूर हुवा .
इस पूरे इलाक़े मे अभी भी कुछ प्राचीन शाही भवन जर्जर हालत मे मौजूद हैं. शाही दौर मे मिर्ज़ा मंडी मे सब्ज़ी,तरकारी की बाजार थी.मगर अब यहाँ उस तरह की कोई बाजार नहीं है.तंग गलियों से निकल कर कोणेश्वर,पीर बुखारा,सोंधी टोला,साह जी की ड्योढ़ी, चौक,बांध वाली गली,दर्ज़ी की बग़िया,गोल दरवाज़ा और कंपनी बाग़ आदि है .मिर्ज़ा मंडी से ही मिला जुला नालबंदी बंदी टोला और नाल दरवाज़ा भी था.मोहल्ले की कोठियां देखने वाली थीं और उनमे रहने वालों की दास्तानें सुनने वाली वाली हैं.
इतिहासकार आग़ा मेहदी अपनी प्रसिद्ध किताब तारीखे लखनऊ मे लिखते हैं नाल दरवाज़ा शायद इस वजह से कहा जाता है की नाल बंदी टोले की तरह शायद यहाँ भी घोड़ों की नालबंदी की जाती थी. यहीं शरफ उद दौला का मकान था और वह ग़दर मे इसी मकान का फाटक बंद करके अंदर बैठ रहे थे. लकिन हंगामे के बाद किसी न किसी तरह वह यहाँ से निकलने मे सफल हुवे .
अवध के आखरी ताजदार वाजिद अली शाह के माटिएबूर्ज जाने के बाद ग़दर में उनकी पत्नी बेगम हज़रत महल ने ईस्ट इंडिया कंपनी से मोर्चा लेने की ठानी और क़ैसरबाग़ को त्याग कर नाल दरवाज़े मे ही रहना पसंद किया ..मिर्ज़ा मंडी मे ही साह जी की ड्योढ़ी बहुत मश्हूर थी..साह जी का सम्बन्ध फर्रुखाबाद से था साहूकारी पेशा था,अवध के इतिहास मे उनका नाम बड़ी इज़्ज़त से लिया जाता है ,वह कट्टर और नेक हिन्दू थे और अपना काफी धन धर्मार्थ मे खर्च करते थे. शरफ उद दौला बहुत दूर दृष्टि रखते थे उन्होने बेगम हज़रत महल को मशविरा दिया कि वह यहाँ से कहीं और कूच करें ताकि गोरे (ईस्ट इंडिया कंपनी )जो यहाँ से बहुत क़रीब हैं उनकी नज़र से दूर रह सकें और स्थीति ख़राब हुई तो उसका सम्भालना मुश्किल हो जायेगा, और आप का यह सेवक रुस्वा हो जायेगा.
बेगम हज़रत महल ने कहना मान लिया और वहां से उन्होने शरफ उद दौला नवाब इब्राहिम खान के घर को आबाद किया लकिन यहाँ भी उनको कुछ शक हुआ और हज़रत महल ने हुसैनाबाद महल सरा का रुख किया मगर फिर शरफ उद दौला के घर आईं और रात साह जी ड्योढ़ी पैर गुज़ारी.यही वह मकान है जहाँ से बेगम हज़रत महल कि आखरी सवारी नेपाल रवाना हुई और कभी वापस नहीं आयीं.यही वह ड्योढ़ी है जहाँ एक अरसे तक हिंदी के प्रखियात लेखक अमृत लाल नगर ने अपनी जिंदिगी का एक बड़ा हिस्सा गुज़ारा .उनकी प्रसिध्द पुस्तकें इस मकान मे लिखी गईं .
साह जी की ड्योढ़ी का अब बुरा हाल है नागर जी के परिवार का कोई नहीं वहां रहता है और ड्योढ़ी मे ही कुछ ग़ैर लोग रहते हैं..अंदर के दालान गिर रहे हैं और ड्योढ़ी का बुरा हाल है.
साह जी की ड्योढ़ी मे शयाम बेनेगल की फिल्म जूनून की शूटिंग भी हो चुकी है और यह भी अजीब इत्तेफ़ाक़ है की कुलभूषण खरबंदा ने इस फिल्म मे भी एक साहूकार का रोले अदा किया था और उर्दू की प्रसिद्द लेखिका अस्मत चुग़ताई ने अपने एक रोले मे अपने परिवार के साथ इन्क़िलेबिायों से छुपने के लिये इसी मकान मे पनाह ली थी
मिर्ज़ा मंडी मे अब पुराने मकान तेज़ी से नये होते जा रहे हैं दो चार क़दीमी हवेलियां बची हैं.उनकी भी हालत जर्जर है.
केन्द्र और उत्तर प्रदेश सरकर को चाहिये इस सम्पति को खरीद कर यहाँ बेगम हज़रत महल की यादगार स्थापित करे.