दानिश रेयाज़,मुंबई
ईद के दिन मैं बहुत ही श्रध्दा से नमाज़ पड़ने गया मेरी आँखें आँसुवों से भीगी जा रही थीं मैं अपने प्रम्परमेश्वर को दिल की गहराइयों से याद कर रहा था और छोटे बड़े गुनाहों के लिये माफ़ी मांग रहा था कि मस्जिद के लाऊड स्पीकर ने मेरा ध्यान भटका दिया. मस्जिद में बड़े ज़ोर ज़ोर से ईद के दिन दोहराये जाने वाले दुआओं का उच्चारण हो रहा था मेरी तरह कई और लोग थे जो ईश्वर की ओर अपना ध्यान केंद्रित करना चाहते थे लेकिन मस्जिद के मुआज्जिन उन्हें उनके प्रम्परमेश्वर से बात करने नहीं देना चाह रहे थे वह हर सेकंड माइक से ऊँचे आवाजों में दुवाओं का ऐसा उच्चारण कर रहे थे कि दूसरे तमाम लोगों को सिवाये खामूश रहने के और कुछ समझ में नहीं आ रहा था. मैं गुस्से में लाल पीला तो होता रहा लेकिन धर्म के ठेकेदारों को कुछ भी नहीं बोल पाया.शाम को जब एक मित्र मिले तो उन्हों ने भी वही दुःख प्रकट किया जिसका मैं शिकार हो चूका था.
अब जब कि ईद के दुसरे ही दिन बंबई हाईकोर्ट ने मस्जिदों व मंदिरों से सभी गैर कानूनी लाऊड स्पीकरों को हटाये जाने का आदेश दिया तो मैं प्रसन्न हो उठा कियोंकि यह मानव समाज पर बड़ा एहसान है हालाँकि इस पर हर जानिब से प्रतिक्रिया आने का सिल्सिला शुरू हो चुका है। न्यायाधीश वीएम कनाडे और पीडी कोडे की पीठ ने यह आदेश भले ही धार्मिक स्थलों पर लगे गैर कानूनी लाऊड स्पीकरों को हटाने के लिये दिया हो जिसमें तमाम धार्मिक त्योहार,चाहे गणेशोत्सव, नवरात्र हो या रोज़ाना मस्जिदों से होने वाली आजान या दुसरे प्रोग्राम, मगर धर्म के ठेकेदारों के पेट में मरोड़ शुरू होचुका है. दरअसल आरटीआई कार्यकर्ता संतोष पचालग ने याचिका दायर की थी कि कई धार्मिक स्थलों में गैर कानूनी तरीके से लाऊड स्पीकर इस्तेमाल हो रहे हैं जो धव्नी प्रदूषण का कारण बन रहे हैं। चूँकि इन धार्मिक स्थलों को लाऊड स्पीकर लगाने की अनुमति नहीं है इसलिये आरटीआई कार्यकर्ता ने आरटीआई के हवाले से जानकारी दी कि 49 में से 45 मंदिर-मस्जिद स्थल ऐसे हैं जिनके पास लाऊड स्पीकर लगाने की अनुमति नहीं है.
दरअसल गत दिनों मुरादाबाद के कांट में लाऊड स्पीकर को लेकर ही साम्प्रदायिक हिंसा भड़की थी जिसमें दो विशेष समुदायों ने आपस में विरोध प्रदर्श करना शुरू कर दिया था और कई लोगों को नुकसान उठाना पड़ा था. कहते हैं कि मस्जिद पर लगे लाऊड स्पीकर को हटाने को लेकर विवाद छिड गया जिसने हिंसा का रूप ले लिया था।
अभी हाल ही में रमजान का पवित्र महीना गुज़रा है जिसमे मुस्लिम समुदाय के लोगों ने ईश्वर को खुश करने का पूरा प्रयास किया है लेकिन विडंबना यह है कि इस पवित्र महीने में भी जिस प्रकार लाऊड स्पीकर का प्रयोग हुआ है वह खुद समाज के संजीदा लोगों को सोचने पर मजबूर कर देता है कि किया यही इस्लाम का पाठ है जो लोगों को रात दिन माइक पर व्यस्त रखता है.
माइक पर अजान, माइक पर तिलावत, माइक पर दुआ माइक पर ज़िक्र व अज़्कार का ऐसा सिल्सिला चल पड़ा है कि धर्म के अनुयाई भी इस के खिलाफ बोलने पर इस डर से चुप रहते हैं कि कहीं कोई कठमुल्ला उनके खिलाफ फतवा ना दे दे और उन्हें समाज से निष्कासित कर दिया जाये.
हिन्दुस्तान में माइक पर आज़ान बहुत पुरानी रस्म नहीं है बल्कि १९६० की दहाई तक तो मोलवियों में यह लड़ाई का विषय था कि मस्जिद में लाऊड स्पीकर लगाना इस्लाम के अनुकूल है या उसके विपरीत, एक वर्ग यह समझता था कि लाऊड स्पीकर का इस्तेमाल कदापि नहीं होना चाहिये तो दूसरा वर्ग इस बात का पक्षधर था कि चूँकि लाऊड स्पीकर दूर तक संदेश पहुँचाने का माध्यम है इसलिये इसे प्रयोग में लाना चाहिये. लेकिन धीरे धीरे तमाम विवाद ख़त्म हो गये और यह हर मस्जिद का एक हिस्सा बन गया. लोगों को भी कोई आपत्ति नहीं हुई कि चलो माइक के ज़रिया भी भक्ति भाव का ही काम हो रहा है लेकिन मुसीबत उस समय शुरू होगई जब हर काम के लिये माइक का इस्तेमाल किया जाने लगा. अगर मस्जिद में दस लोग भी नमाज़ पड़ रहे हों तो इमाम साहब जब तक माइक ना लगा लें उस समय तक जमाअत नहीं खड़ी हो सकती. दुआओं के लिये माइक के साउंड को जब तक बड़ा ना लिया जाये उस वक़्त तक शायद दुआ ही कुबूल ना हो. तरावीह की नमाज़ भी माइक पर इस तरह हो कि पूरा इलाक़ा सुने.चाहे इलाक़े में कोई तरावीह पड़ने वाला हो या ना हो.
दिल्चस्प बात तो उस वक़्त हुई जब मेरे एक मित्र ने अपने घर का एक किस्सा सुनाया, उन्हों ने कहा कि “घर के बच्चों को यह समझाया गया है कि जब अज़ान हो तो आप टेलीविजन बंद कर दिया करें एक दिन मगरिब (शाम) का समय था और मेरा पांच वर्षीय बेटा टीवी देख रहा था कि अज़ान शुरू हो गई, उसने तुरंत टीवी बंद कर दिया, अज़ान ख़त्म होने के बाद जैसे ही उसने टीवी आन किया दूसरी मस्जिद की अज़ान होने लगी उसने तुरंत दोबारा टीवी बंद कर दिया, फिर जब अज़ान ख़त्म हुई तो उसने टीवी शुरू किया और फिर तीसरी मस्जिद की अज़ान शुरू हो गई, उसने तीसरी बार भी ऐसा ही किया लेकिन जब थोड़ी देर बाद चौथी बार भी ऐसा ही करना पड़ा तो उसने ज़ोर से अपने पापा को कहा कि यह अज़ान तो बंद ही नहीं होती अब मैं टीवी बंद नहीं करूंगा”.
मेरे एक मित्र ने कहा कि जब एक छोटे से बच्चे को माइक से इस प्रकार की घुटन होने लगी और उसने घर के बताये हुए सबक़ को ही भूल जाना चाहा तो बताएं दुसरे लोगों को इससे कितनी तकलीफ पहुँचती होगी.
दरअसल इस्लाम अमन व शांति का पोशक है वह ऐसे तमाम कामों से अपने अनुयाईयों को रोकता है जिस से मानव अधिकार का हनन हो. इस्लाम में हर प्रकार के प्रदूषण की निंदा की गई है, धव्नी प्रदूषण पर तो बहुत ही क्रोध जताया गया है. हमारे पैगम्बर صلی اللہ علیہ وسلم ने यहाँ तक कहा है कि किसी को ऊँची आवाज़ में मत बोलो कि उसे तकलीफ पहुंचे. ऐसे मैं जब मस्जिदों से धव्नी प्रदूषण की कोशिशें होती हैं तो इसका दोष केवल उन मोलवियों और ट्रस्टियों को दिया जाना चाहिये जो इसका उलंघन कर रहे है लेकिन विडंबना यह है कि करे कोई भरे कोई वाला हिसाब यहाँ भी है और सारा दोष धर्म या समाज को दिया जाने लगता है.
मैं यह समझता हूँ कि अगर मस्जिदों पर से लाऊड स्पीकर उतारने का आदेश बम्बई हाई कोर्ट ने दिया है तो ना केवल इसका स्वागत किया जाना चाहिये बल्कि मुस्लिम समुदाय के लोग ही एक ऐसा टास्क फ़ोर्स गठित करें जो हर मस्जिदों पर जाकर वहां लगे क़ानूनी व गैर क़ानूनी तमाम लाऊड स्पीकरों को उतारे और किसी प्रकार की अशोभ्निये घटना से समाज को मुक्त करे.
लाऊड स्पीकर ना तो धर्म का हिस्सा है और ना ही केवल इसी के ज़रिये धर्म का प्रचार व प्रसार हो सकता है बल्कि कथित रूप से यह कहा जा सकता है कि इन लाऊड स्पीकरों की वजह से भी धर्म को नुक़सान पहुँच रहा है और समाज में अराजकता फैल रही है. समाज का आपसी सौहार्द इस प्रकार के धव्नी प्रदूषणनों से भी बिगड़ रहा है और एकता में अनेकता की जो मिसाल दी जाती है वह ख़त्म हो रहा है. इसलिये बम्बई हाई कोर्ट का आदेश ना केवल समाज को सुकून पहुँचाने वाला है बल्कि इस्लाम धर्म की बिगड़ती स्थिती को भी दुरुस्त करने वाला है. यह तो एक प्रकार से इस्लाम धर्म की सेवा करना जैसा है.