अबू जफर,
आजमगढ़ (उत्तर प्रदेश), 28 सितंबर। अपने क्षेत्र के सबसे पुराने मदरसों में से एक मदरसतुल इस्लाह के छात्र रहे अबू ओसामा को लगता था कि वे आधुनिक संसार की स्पर्धा में नहीं टिकेंगे। लेकिन बहुत जल्द ही उनकी आशंका गलत निकली।
ओसामा अभी मौलाना आजाद नेशनल उर्दू विश्वविद्यालय के सामाजिक कार्य विभाग में सहायक प्राफेसर हैं। उन्होंने डेल्ही स्कूल ऑफ सोशल वर्क में स्नाताकोत्तर कोर्स किया है। वे कहते हैं कि मुझे बाद में यह अहसास हुआ कि इस्लामी मूल्यों और नैतिकता के अलावा भी मैंने काफी कुछ मदरसे के पाठ्यक्रम से सीखा था।
मदरसे, खासकर आजमगढ़ के मदरसे हाल के वर्षों में हमेशा गलत कारणों से खबरों में रहे हैं। आजमगढ़ पूर्वी उत्तर प्रदेश का वह जिला और शहर है जो एक जमाने में उच्च बौद्धिक क्षमता के लोगों और हिन्दू-मुस्लिम एकता के लिए जाना जाता था। मगर हाल के वर्षों में मीडिया की बहसों में बेहद अन्यायपूर्ण ढंग से आजमगढ़ को आतंक का गढ़ बताया जाता रहा है क्योंकि एक के बाद एक कई अतिवादियों को इस इलाके से गिरफ्तार किया गया।
उत्तर प्रदेश में करीब उन्नीस हजार मदरसे हैं जो अब भारतीय जनता पार्टी की सरकार में देशभक्ति के सवाल और राष्ट्रगान गाने के वीडियो बतौर सबूत पेश करने के फरमान से परेशानियों का सामना कर रहे हैं।
इन सबके बीच आजमगढ़ के मदरसे जैसे अन्य मदरसे पुरानी धारणाओं को चुनौती देकर सकारात्मक छवि बना रहे हैं। समय के साथ चलने की कोशिश में इस तरह के कई मदरसों ने न सिर्फ आधुनिक और प्रगतिशील पाठ्यक्रम तैयार किये हैं बल्कि अपने छात्रों को कंप्यूटर और अन्य तकनीकी यंत्रों से लैस कर रहे हैं। इन मदरसों में कुरआन, मजहब और अरबी के साथ-साथ सायंस, गणित, अर्थशास्त्र, इंग्लिश, हिन्दी, फारसी और कंप्यूटर की शिक्षा दी जा रही है। इनमें से कुछ मदरसों में पॉलिटेक्निक और मिनी आईटीआई सेंटर भी खोले गये हैं।
इन मदरसों से शिक्षा लेने वाले अनेक छात्र देश-विदेश के विश्वविद्यालयों में रिसर्च कर रहे हैं या सरकारी और निजी क्षेत्रों में अपना योगदान कर रहे हैं। आजमगढ़ और आसपास के जिलों में करीब पचास मदरसे हैं जहां लगभग पचास हजार विद्यार्थी पढ़ते हैं। यह छात्र उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, बिहार, झारखंड, पश्चिम बंगाल, असम, जम्मू कश्मीर, हरियाणा, मध्य प्रदेश, मध्य प्रदेश ओर नेपाल के हैं।
यहां के छात्रों में व्हाट्ऐप काफी लोकप्रिय है और उनमें से अधिकतर के पास फेसबुक अकाउंट है और वे ई मेल का इस्तेमाल करते हैं।
जब आप मदरसतुल इस्लाह के मुख्य द्वारा से अंदर जाते हैं तो प्रशासनिक भवन के बाद पहली इमारत पॉलिटेक्निक सेंटर की मिलती है। यहां पॉलिटेक्निक के पाठ्यक्रम के अलावा मोबाइल फोन, कंप्यूटर और अनुवाद के पाठ्यक्रम भी उपलब्ध हैं। यह मदरसा 1908 में स्थापित किया गया था। यहां करीब डेढ़ हजार छात्र हैं।
मदरसतुल इस्लाह से पचास किलोमीटर की दूरी पर एक और मदरसा है- जामियतुल फलाह। 1962 में स्थापित इस मदरसे में करीब 4300 विद्यार्थी हैं जिनमें आधी छात्राएं हैं। जामियतुल फलाह के निदेशक मौलाना मोहम्मद ताहिर मदनी का मानना है कि इस्लामी मदरसों में आधुनिक विषयों की पढ़ाई आवश्यक है।
जामियतुल फलाह की स्थापना इसी आधार पर हुई थी कि इसमें इस्लामी और आधुनिक दोनों शिक्षा दी जाएगी। उन्होंने आईएएनएस को बताया- हम यह काम जामियतुल फलाह की स्थापना के समय से कर रहे हैं। उन्होंने कहा-हम अपने बच्चों को शिक्षित करना चाहते हैं और उन्हें इस लायक बनाना चाहते हैं कि वह इस्लाम और मुस्लिम समुदाय का सही प्रतिनिधित्व करें।
1994 में यहां से अपनी पढ़ाई पूरी करने वाले सैयद मुमताज आलम इस समय दिल्ली के न्यूजपोर्टल इंडियाटुमॉरो.नेट के सम्पादक हैं। वे कहते हैं कि उनके मदरसे का पाठ्यक्रम ऐसा था कि कभी ऐसा नहीं लगा कि उन्हें मस्जिद और मदरसा से ही अपनी आजीविका कमानी होगी।
श्री आलम कहते हैं कि निस्संदेह, मदरसे बखूबी ऐसे इंसान बना रहे हैं जो हजारों मस्जिदों और मदरसों में अपनी जिम्मेदारी निभा सकें लेकिन ऐसे मदरसे जहां से उन्होंने शिक्षा हासिल की वे युवाओं को वृहत फलक से परिचित करा रहे हैं। इस कारण ऐसे मदरसों से निकले हजारों छात्र सरकारी विभागों में, बड़े कॉरपोरेट्स में और एमएनसी में नौकरी पा रहे हैं। श्री आलम करीब डेढ़ दशक तक अमेरिकी वेबपोर्टल टूसर्किल.नेट के भारत प्रमुख रहे हैं। उनका मानना है कि मदरसों में पाठ्यक्रम के अलावा विभिन्न गतिविधियों से काफी लाभ हुआ है।
वे कहते हैं- हमारे कॉमन रूम या लाइब्रेरी में उर्दू और अरबी समाचारपत्रों के अलावा अंग्रेजी और हिन्दी दैनिक भी आते थे। हम उस समय अलग-अलग भाषाओं में साप्ताहिक पत्रिका निकाला करते थे।
सच्चर कमेटी की रिपोर्ट के अनुसार मुसलमान छात्रों का सिर्फ चार प्रतिशत अब मदरसे जाता है। परंपरागत विचारधारा के लोगों का मानना है कि इन चार प्रतिशत छात्रों को इस्लामी अध्ययन में विशेषज्ञता प्राप्त करनी चाहिए और उन्हें आधुनिक विषयों की पढ़ाई की जरूरत नहीं है। लेकिन मदरसतुल इस्लाह में अंग्रेजी के शिक्षक मोहम्मद आसिम का विश्वास है कि आधुनिक विषयों की पढ़ाई से इस्लाम को समझने और उसके प्रचार-प्रसार में सुविधा होती है। वे कहते हैं कि आधुनिक विषयों की पढ़ाई समय की मांग है। गणित जैसे विषय की पढ़ाई इसलिए भी जरूरी है कि इसके बिना विरासत, बंटवारे और व्यापार से संबंधित इस्लामी कानून को इसके बगैर समझा ही नहीं जा सकता। सायंस के अध्ययन से कुरआन की बहुत सी आयतों को समझने में मदद मिलती है।
जवाहरलाल नेहरू यूनिवर्सिटी में मदरसों के पाठ्यक्रम पर रिसर्च कर रहे मोहम्मद सऊद आजमी को लगता है कि मदरसों में आधुनिक विषयों को शामिल करना सही दिशा में महत्वपूर्ण कदम है। उनका मानना है कि इसके साथ उन्हें शिक्षण तकनीक को भी सुधारने की जरूरत है।
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यह लेख आईएएनएस और फ्रैंक इस्लाम फाउंडेशन के सहयोग से शुरू की गई एक विशेष श्रृंखला का हिस्सा है । लेखक को ईमेल atabuzafar@journalist.com से संपर्क किया जा सकता है