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फ्रान्स के कुवाची भाई और यूरोपीय बुद्धिमत्ता

by | Jul 4, 2025

डा. सैयद ज़फ़र महमूद,

अध्यक्ष, ज़कात फ़ाउंडेशन आॅफ इंडिया, नई दिल्ली

हर आतंकवादी को कड़ी सज़ा मिलनी चाहिए, इस बात पर सभी लोग भलीभाँति एकमत हैं। फ़्रान्स के कुवाची भाइयों को भी सज़ा मिल गयी। लेकिन, किसी भी सज़ा का उद्देश्य इंसाफ़ की मांग को पूरा करना और भविष्य में एसी घटनाएं न हों इसके लिए सजग करना होता है। कुवाची भाइयों के मामले में पहला उद्देश्य तो पूरा हो गया लेकिन भविष्य में एेसे अपराधों की रोक-थाम के लिए भी तो ज़रूरी क़दम उठाने चाहिएं। यदि हम कुवाची भाइयों को हाथों हाथ अंजाम तक पहुंचाकर ही पूरी तरह सन्तुष्ट हैं तो यह हमारी अदूरदर्शिता है जो आने वाली पीढ़ियों की नज़र में हमें स्वार्थी बनाएगी, क्योंकि हम भावी पीढ़ियों की सुरक्षा के लिए चिंन्तित नहीं हैं। पैरिस में होने वाली घटना कोई इकलौती आंतकी घटना नहीं है, बल्कि यह एक मानसिक स्थिति को दर्शाती है जिसे गहराई से समझने की ज़रूरत है।

कुवाची ब्रदर्स 1980 के दशक में जब पैदा हुए थे तो वे आतंकी नहीं थे। वयस्क होने से पहले उन्होंने हथियार भी नहीं उठाए होंगे। इसलिए, 1990 के दशक तथा बीते वर्ष के बीच उनके मस्तिष्क पर किन भावनाओं का प्रभाव पड़ा जो नहीं पड़ना चाहिए था और अंततः उन्हों ने स्वंय को हलाक कर देने का फ़ैसला क्यों कर लिया? इस गंभीर सोच-विचार व शोध का बहुत महत्व है। एक आसान और दिल को लुभाने वाला विकल्प यह है कि उनकी धार्मिक मान्यताओं पर आरोप लगा कर पल्लू झाड़ लिया जाए। यह रास्ता हम ने पहले अपनाया है लेकिन उससे हमें आतंकी घटनाओं को रोकने में कामयाबी नहीं मिली है।

20वीं सदी के अन्त में और 21वीं सदी के शुरू में यह एक आम आभास रहा है कि अधिकांश आतंकी हरकतें करने वाले व्यक्ति ऊपरी तौर पर इस्लाम धर्म के अनुयायी हैं। हालांकि इससे पहले एेसा नहीं था, लेकिन लगभग चार दशकों की यह अवधि किसी पीढ़ी की सामान्य आयु का महत्वपूर्ण काल होती है। इसलिए, यहां यह बात ग़ौर करने वाली है कि मीडिया रिपोर्टिंग के प्रचलित ढंग (किसी ख़बर को तेज़ी से बार बार दोहराना, फिर किसी नई ख़बर की तरफ़ बढ़ जाना) पर निर्भर रहने और मूल माध्यम की मदद से अध्ययन करके स्वंय समझने का प्रयास न करने से पूरी पीढ़ी अंजाने में आधे अधूरे तथ्यों पर आधारित अपूर्ण तस्वीर ही देख पाती है। इसके नतीजे में पीढ़ी-दर-पीढ़ी मानव-अधिकारों एंव हितों की ओर ध्यान देने और उन्हें संगठित व समकेतिक करने की दीर्ध-कालिक प्रक्रिया नकारात्मक रूप से प्रभावित होती है।

मैं जब यह लेख टाइप कर रहा था तो मुझे मुम्बई से फ़ोन पर महाराष्ट्र की नई सरकार के ख़िलाफ़ प्रस्तावित विरोध प्रदर्शन में भाग लेने के लिए मुम्बई आने का बुलावा मिला क्योंकि सरकार मराठों के लिए शिक्षण संस्थाओं एंव सरकारी रोज़गार में सीटों का आवंटन निर्धारित करने का निर्णय कर रही है और मुसलमानों के लिए इसी तरह की कार्रवाई से बच रही है, हालांकि पिछली राज्य सरकार ने दोनों ही समुदायों के लिए संयुक्त रूप से यह प्रक्रिया शुरू की थी। मै ने अपनी व्यस्तता के कारण इस कार्यक्रम में शामिल न हो पाने के लिए आयोजकों से क्षमा चाह ली लेकिन मैं हैरान हूं कि महाराष्ट्र में मुस्लिम नवयुवकों के मस्तिष्क पर इस सरकारी भेदभाव का क्या प्रभाव पड़ रहा होगा।

फ्रान्स और दुनिया में जगह जगह अधिकांश मुसलमान कई वर्षों से इस बात से दुखी हैं कि पत्रकारों का एक वर्ग उनके पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम) का मज़ाक़ बनाकर उनका अपमान करता है जबकि पवित्र क़ुर्आन (9:24) में ईमान वालों को यह निर्देश दिया गया है कि वे पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद (सल्लल्लाहो अलैह वसल्लम) के साथ अपने सम्बंध को, दिल की गहराई से, दुनिया के हर दूसरे सम्बंध से अधिक प्रिय और महत्वपूर्ण मानें। पैग़म्बरों के अपमान को सहन करना इस्लामी संस्कृति में मान्य नहीं है। सच्चाई तो यह है कि हज़रत इब्राहीम, हज़रत मूसा, हज़रत ईसा और अन्य पैग़म्बरों का नाम भी मुसलमान ‘हज़रत’ (सम्मानीय) और अलैहिस्सलाम (उन पर सलामती हो) कहे बिना नहीं लेते हैं। इसलिए फ्रान्स के मुसलमानों ने स्थानीय अदालत में अपील की थी, लेकिन अदालत ने उनके ख़िलाफ़ फ़ैसला दिया और पत्रकारों को पैग़म्बर-ए-इस्लाम के कार्टून बनाने व प्रकाशित करने की अनुमति दे दी। पूरी दुनिया में फैला हुआ 1.6 अरब आबादी वाला एक विश्वव्यापी समुदाय आसमानी गृन्थ से प्राप्त अध्यात्मिक आदेशों के पालन पर गत 1400 वर्ष से कार्यरत है लेकिन एक भौगोलिक क्षेत्र में रहने वाले कुछ व्यक्तियों के मन में इन भावनाओं के सम्मान के लिए आवश्यक ह्रदेयता और सहयोग की कमी है। धर्मग्रंथ से आज्ञापित आध्यात्मिक मूल्यों और दुनियादारी के स्वनिर्मित पैमानों के बीच इस विरोधाभास के हल के लिए संसार के बुद्धिजीवियों को ग़ौर करना ही होगा और न्याय एंव परोपकार पर आधारित कोई रास्ता निकालना होगा। यह अलग बात है कि एेसी स्थिति में भी इस्लाम अपने अनुयायियों को संयम और प्रार्थना की सीख देता है।

कई अन्य सवाल भी हैं जिन पर विचार करने की ज़रूरत है। क्या यूरोप में मुसलमानों की सत्ता वाली आठ शताब्दियों में कोई अच्छा काम नहीं हुआ !  तो यूरोप मे पढ़ाई जाने वाली इतिहास की किताबों में से इस अवधि को ख़ारिज नहीं किया जाना चाहिए। इन दिनों यह खबरें आ रही हैं कि यरूशलेम की अल-अक़सा मस्जिद जो मुसलमानों के लिए जगत का तीसरा सर्वाधिक महत्वपूर्ण धार्मिक स्थल है, पर ख़तरनाक नज़रें हैं । रैटको एमलाडिक (Ratco Mladic) जिसने 9/11 की घटना से बहुत पहले सात हज़ार मुसलमानों की हत्या करवाई, उसे मीडिया में आम तौर से केवल “बोसनिया का पूर्व सेनाध्यक्ष” कहा जाता है। इस तरह के छोटे-बड़े उदाहरण विभिन्न देशों में हैं। लेकिन यदि मुस्लिम नाम का कोई व्यक्ति गै़र क़ानूनी हरकत करता है तो उसे तुरन्त “इस्लामी” आतंकी कह दिया जाता है।

अम्रीका के राजनैतिक विश्लेषक डेविड लैटिन (David Laitin) ने 2010 में सर्वे और समीक्षा करके यह रिपोर्ट दी कि फ़्रान्स में किसी अफ़्रीक़ी मूल के ईसाई नागरिक को बराबर की योग्यता रखने वाले उसी मूल के किसी मुस्लिम नागरिक की अपेक्षा नौकरी के लिए ढाई गुणा अधिक अवसर प्राप्त होते हैं। केलिफ़ोर्निया यूनिवर्सिटी के राजनीतिशास्त्र विशेषज्ञ क्लेयर एडिडा और अर्थशास्त्री मैरी एेन वाल्फ़ोर्ट के साथ संयुक्त रूप से किए गए शोध के आधार पर उन्होंने पाया कि यूरोप में एक मुस्लिम परिवार की मासिक आमदनी उसी जैसी सामाजिक व आर्थिक स्थिति रखने वाले समान मूल के ईसाई परिवार की अपेक्षा 400 यूरो कम होती है। ‘एम्नेस्टी इण्टरनेशनल’ ने 2012 में यह रिपोर्ट दी कि रोज़गार के क्षेत्र में धर्म या आस्था के आधार पर भेदभाव की निषेधता का क़ानून पूरे यूरोप में अप्रभावी मालूम होता है क्योंकि मुसलमानों में, और विशेष रूप से मुस्लिम महिलाओं में, बेरोज़गारी का अधिक अनुपात दिखाई पड़ता है। ‘च्वाइस एण्ड प्रेजुडिसः डिस्क्रिमिनेशन अगेन्स्ट मुस्लिम्स इन यूरोप’ (Choice and Prejudice: Discrimination against Muslims in Europe) नामी रिपोर्ट में धर्म व आस्था के आधार पर मुसलमानों के साथ भेदभाव किए जाने से रोज़गार एंव शिक्षा सहित उनके जीवन के विभिन्न पहुलओं पर पड़ने वाले प्रभावों को विस्तार से बताया गया है।

कुछ सवाल दुनिया के हर बुद्धिजीवी को स्वंय से पूछना चाहिएं। क्या हमें उपरोक्त उदाहरणों में कोई सामान्य धारा दिखाई देती है? क्या हमारी आज की दुनिया में एेसी स्थिति नहीं है कि X तो अपने अधिकार से अधिक माल एंव सम्मान हड़पने की होड़ में लगा हुआ है जबकि Y को अपना न्यायसंगत अधिकार प्राप्त करने में भी अवरोधों का सामना करना पड़ता है? हमारी मनभावी पीढ़ी को यह सोचना होगा कि इस स्थिति में दुनिया के मुस्लिम युवाओं के मस्तिष्क में हम किस तरह की प्रवृत्तियां उभरने की अपेक्षा कर सकते हैं। और यह कि क्या सुधारात्मक एवं निरोधक उपाय किए जाने चाहिएँ । मीडिया भी इस मामले में स्वंय को संवेदनशील बना कर तथा मानवीय सौहार्द्र को सशक्त करने में अपनी सक्रिय भूमिका निभा कर इस मिशन में सहयोग कर सकता है।

फिर भी, यूरोप ने मौजूदा स्थिति में कुल मिला के जो संयम दर्शाया है वह सराहनीय है। इस महाद्वीप ने जार्ज डब्लू बुश की तरह यह धौंस नहीं जताई कि “जो हमारे साथ नहीं वह हमारा शत्रु है” । इसके बजाए यूरोपवासियों ने कुवाची भाइयों के मामले में नपी तुली प्रतिक्रिया दी है। आशा है कि भविष्य में भी यूरोप के नेता पैरिस की घटना को अपना निजी राजनीतिक हित साधने के लिए इस्तेमाल नहीं करेंगे। फ़्रान्स के प्रधानमंत्री का तात्कालिक रोष स्वभाविक है, किन्तु कूटनीतिक बुद्धिमत्ता का तक़ाज़ा यह है कि वह विश्व शान्ति के लिए आवश्यक तत्वों  पर निर्धारित किए गए रास्ते से न भटकें। उनकी उत्तेजना जब चेतना में बदल जाए तो वह अध्ययन से इस नतीजे पर पहुंच जाएंगे कि ‘रैडिकल इस्लाम’ की उनकी परिकल्पना आधारहीन है। उनके राष्ट्रपति ने भी उन्हें यही सलाह दी है। इस्लाम के कुछ तथाकथित अनुयायी, रैटको एमलैडिक व विभिन्न धर्मों के कई लोगों की तरह, रास्ते से भटक गए हैं। लेकिन आशा की किरण चमकी है कि सभी महाद्वीपों में इस समय सोचने समझने का उत्साहजनक मूड दिखाई दे रहा है। ख़ुदा करे कि पश्चिमी जगत तथा दुनिया के अन्य क्षेत्र कम से कम 100 साल बाद तक के बारे में सोचने लगे हों। महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘बुराई से घृणा करो, बुराई करने वाले से घृणा न करो।’ कुवाची भाईयों की आत्मा का फ़ैसला तो ख़ुदा करेगा, लेकिन आइए हम दुनिया वाले लोग न्याय और करुणा से काम लें और भावी पीढ़ियों की बेचैनी को दूर करने की योजना बनाएं और उसपर कार्यशील रहें। इस तरह हम दुनिया को, आज भी और कल भी, रहने की एक बेहतर जगह बनाने के लिए काम कर सकते हैं।

(अंग्रेज़ी में इस लेख को Kouachis in Paris and Continental Sagacity के नाम से ऑन लाइन पढ़ा जा सकता है।)

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