समानता का मतलब यह नहीं है कि महिला और पुरुष का कार्यक्षेत्र आवश्यक रूप से एक ही हो, दोनों एक ही जैसे काम करें, दोनों पर जीवन के सभी क्षेत्रों की ज़िम्मेदारियाँ समान रूप से लाद दी जाएं। इस मामले में प्रकृति ने दोनों पर बराबर बोझ नहीं डाला है।
मानव नस्ल को जारी रखने की सेवा में बीज डालने के सिवा और कोई काम पुरुष के सुपुर्द नहीं किया गया है। इसके बाद वह बिल्कुल स्वतंत्र है, जीवन के जिस क्षेत्र में चाहे काम करे। उसके विपरीत मानव जाति की सेवा का सारा बोझ स्त्री पर डाल दिया गया है। इसके लिए गर्भावस्था और उसके बाद पूरा एक साल सख़्तियां झेलते बीतता है, जिस दौरान वास्तव में वह आधा मुर्दा होती है। उसके लिए स्तनपान के पूरे दो साल ऐसे गुजरते हैं कि उस पर रात की नींद और दिन का सुकून हराम हो जाता है।
वह अपने खून से मानवता की खेती को सींचती है। इस पर बच्चे की प्रारंभिक परवरिश के कई साल इस मेहनत व परिश्रम से गुज़रते हैं कि वे अपना आराम, सुकून, अपनी खुशी और अपनी इच्छाओं को नई नस्ल पर कुर्बान कर देती है। जब हाल यह है तो न्याय का तकाजा क्या है? क्या न्याय यही है कि महिला से उसकी प्राकर्तिक एवं स्वाभाविक जिम्मेदारियों का निर्वाहन भी कराया जाए जिनमें पुरुष उसका साझेदार नहीं है और फिर उसके साथ साथ उस पर सभ्यता एवं संस्कृति की जिम्मेदारियों का बोझ भी पुरुष के बराबर लाद दिया जाए जिन से निपटने के लिए पुरुषों को प्रकृति की सभी ज़िम्मेदारियों से मुक्त रखा गया है?
क्या स्त्री से यह कहा जाए कि वह वो सारी मुसीबतें भी उठाए जो प्रकृति ने उस पर डाली हैं और फिर हमारे साथ आकर रोजी-रोटी कमाने की मेहनत और संघर्ष भी करे! राजनीति, न्यायालय, उद्योग और कला, बाज़ार, व्यापार, कृषि और शांति एवं देश की रक्षा के सेवाओं में भी बराबर का हिस्सा ले! हमारी सोसाइटी में आकर दिल भी बहलाए और विलासिता, आनंद और सुख के सामान भी प्रदान करे! यह न्याय नहीं अत्याचार है और समानता नहीं स्पष्ट असमानता है। ”
(पर्दा, मौलाना सैयद अबुल आला मौदूदी र.)