By Asmad Habib, Maeeshat
भारत दुनिया के तेज आर्थिक विकास वाले देशों में है, पर इस विकास का लाभ गरीबों को नहीं मिल रहा। इसका असर उसके विकास पर भी पड़ा। सामाजिक चुनौतियां बनी हुई हैं और गरीबी बढ़ रही है।
देश में गरीबी उन्मूलन की योजनाएं तो खूब हैं, लेकिन भूमि सुधार से हमेशा परहेज किया जाता रहा है। नौकरशाही का रवैया और भ्रष्टाचार भी गरीबी उन्मूलन में बड़ी बाधा है। भारत और दुनिया की प्रमुख समस्याओं में से एक गरीबी है। गरीबी मात्र समस्या ही नहीं बल्कि एक अभिशाप है। भारत की 70 फीसदी आबादी अभी भी भरपेट खाना नहीं खा पाती। भारत में आर्थिक विकास जितना बढ़ रहा है उतनी ही गरीबी भी बढ़ रही है। वास्तव में गरीबी और विषमता घटने की बजाय बढ़ गई है।
पैसों की कमी की वजह से अमीर और गरीब के बीच खाई बढ़ती ही जा रही है। ये अंतर ही किसी देश को अविकसित की श्रेणी की ओर ले जाता है। गरीबी की वजह से ही कोई छोटा बच्चा अपने परिवार की आर्थिक मदद के लिये स्कूल जाने के बजाय कम मजदूरी पर काम करने को मजबूर है।
पहले पोषक तत्वों के आधार पर गरीबी का अनुमान लगाया जाता था, जिसका मतलब था कि शहरों में 2100 कैलोरी और गावों में 2400 कैलोरी ऊर्जा खरीदी जा सके। लेकिन पिछले कुछ सालों में इस मानदंड की तीखी आलोचना हुई है और आखिरकार योजना आयोग ने आकलन की एक नयी पद्धति सुझाई। इसमें जीवन जीने के लिए जरूरी वस्तुओं को रखा गया, जिसमें भोजन, ईंधन, बिजली, कपड़े और जूते शामिल हैं।
भारत ने आर्थिक सुधार शुरू किया। सुधारों से उम्मीद थी कि लोगों के आर्थिक हालात सुधरेंगे, लेकिन शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाओं पर ध्यान न देने की वजह से गरीबी, कुपोषण, भ्रष्टाचार और लैंगिक विषमता जैसी सामाजिक समस्याएं बढ़ी हैं। अब यह देश के विकास को प्रभावित कर रहा है. दो दशक के आर्थिक सुधारों की वजह से देश ने तरक्की तो की है, लेकिन एक तिहाई आबादी अभी भी गरीबी रेखा के नीचे जीवन बसर कर रही है। भारत इस अवधि में ऐसा देश बन गया है जहां दुनिया भर के एक तिहाई गरीब रहते हैं।
आईआईटी और आईआईएम को विश्व भर में जाना जाता है लेकिन वे भारत के वर्तमान विकास के लिए जरूरी इंजीनियर और मैनेजर प्रशिक्षित करने की हालत में नहीं हैं। देश में औद्योगिक उत्पादन बढ़ाने और नए रोजगार पैदा करने के लिए कामगारों और मैनेजरों के स्तरीय प्रशिक्षण की योजना जरूरी है। शोध और विकास के क्षेत्र में भी भारत पर्याप्त खर्च नहीं कर रहा है। भारत रिसर्च और डेवलपमेंट पर होने वाले वैश्विक खर्च का सिर्फ 2.1 प्रतिशत खर्च करता है जबकि यूरोप का हिस्सा 24.5 प्रतिशत है।
नए रोजगार बनाने और गरीबी को रोकने में सरकार की विफलता की वजह से देहातों से लोगों का शहरों की ओर बड़े पैमाने पर पलायन हो रहा है। इसकी वजह से शहरों के ढांचागत संरचना पर दबाव पैदा हो रहा है। आधुनिकता के कारण परंपरागत संयुक्त परिवार टूटे हैं और नौकरी के लिए युवा लोगों ने शहरों का रुख किया है, जिनका नितांत अभाव है। नतीजे में पैदा हुई सामाजिक तनाव और कुंठा की वजह से हिंसक प्रवृति बढ़ रही है, खासकर महिलाओं के खिलाफ हिंसा में तेजी आई है।
भारत मुख्य रूप से गांवों में रहने वाली अपनी आबादी की क्षमताओं का इस्तेमाल करने और उन्हें शिक्षा और स्वास्थ्य सेवाएं देने में नाकाम रहा है। उसे समझना होगा कि उसका आर्थिक स्वास्थ्य व्यापक रूप से उपलब्ध प्रतिभाओं के बेहतर इस्तेमाल पर ही निर्भर है।