दलित मीडिया एडवोकेसी का उद्देश्य स्वतन्त्र समाचार माध्यम खड़ा करना नहीं
अरुन खोटे
दलित मीडिया वाच टीम
दलित संगठन, नेटवर्क और आन्दोलन पूरे मीडिया को खारिज कर देते हैं lक्या यही पूर्ण सच्चाई है ?
मीडिया में दलितों के मुद्दे नहीं है और उनका प्रतिनिधित्व भी नहीं है l मीडिया दलितों के साथ होने वाले अत्याचार उत्पीडन को या तो पूरे चटखारेदार बना कर और सनसनी पैदा करके किसी खास राजनीतिक दल के फायदे के लिये उसे उछालता है या फिर महज़ रस्म अदायगी के तहत समाचार पत्र के कोने में कोई जगह दे देता है l समाचार चैनल जब बाध्य हो जाते हैं तो फटाफट समाचारों में दो-चार बार स्टिप चला देते हैं l
मीडिया 100% निजी हाथों या कॉर्पोरेट की मुठ्ठी में है l मीडिया पूर्ण रूप से ब्राह्मणवादी या मनुवादियों की मुठ्ठी में हैं इस तर्क के साथ दलित संगठन, नेटवर्क और आन्दोलन पूरे मीडिया को खारिज कर देते हैं l क्या यही पूर्ण सच्चाई है ? यह एक बहुत महत्वपूर्ण विषय है l
सवाल यह है कि क्या दलित संगठनो/ आन्दोलनों ने अन्य मुद्दों की तरह ही दलितों के मुद्दों के लिये मीडिया में उचित स्थान होना चाहिए इस बात को अपने आंदोलनों में कितना महत्व दिया ? सवाल यह भी है कि दलित संगठनो और आंदोलनों ने क्या इस मुद्दे को लेकर कभी भी मीडिया संस्थानों के साथ कभी कोई संवाद किया है ?
सवाल यह भी है कि क्या कभी दलित संगठनो ने अपने जमीनी स्तर पर काम कर रहे कार्यकर्ताओ और नेताओ को मीडिया के ढांचे, उसके कार्य करने की शैली, उसकी समाचारों के चुनने के मापदंड पर कोई प्रशिक्षण दिया है ? सवाल यह भी है कि क्या दलित संगठनो ने कभी पत्रकारों के साथ सामंजस्य बनाने, उन्हें अपने मुद्दे के प्रति संवेदनशील बनाने की दिशा में कोई प्रयास किया है ?
सवाल यह भी है कि क्या दलित संगठनो ने कभी यह मांग सरकार से या फिर मीडिया संस्थानों से की है कि कम से कम वह अपने संस्थानों में दलित या सामाजिक न्याय के नाम से डेस्क या बीट स्थापित करें जहाँ से दबे कुचले वर्गों से जुड़े समाचारों पर निगाह रखी जाये और उन्हें उचित स्थान देने की सुनिश्चित व्यवस्था की जाये l
आज स्थिति यह है कि लगातार IIMC जो देश का पत्रकारिता का सबसे बड़ा संस्थान है वहां से प्रति वर्ष एक अच्छी तादाद में दलित और दबे कुचले वर्ग के छात्र पत्रकार बन कर निकलते हैं लेकिन मीडिया के ब्राह्मणवाद और मनुवादी संरचना के चलते 90% दलित और दबे कुचले वर्ग के पत्रकार मीडिया संस्थानों में कोई स्थान नहीं पा पाते हैं l जो येन केन प्रकारेण पा भी जाते हैं उन्हें दलितों या दबे कुचले वर्ग के बदले अन्य सामान्य विषयो पर ही काम करने की जिम्मेदारी दी जाती है l बाकि अधिकतर निजी संस्थानों और सरकारी नौकरियो में सूचना अधिकारी की नौकरी में चले जाते हैं l तो क्या यह दलित और दबे कुचले वर्गों का नुक्सान नहीं है l यदि हमारे वर्ग के इन छात्रों को उचित मौका मिलता तो पत्रकार के रूप में यह अपने समाज के मुद्दों को बेहतर तरीके से उठा सकते थे, मगर ऐसा नहीं हो पा रहा है l यह किसका विषय है?
यदि दलित संगठनो ने इन बिन्दुओ के प्रति लगातार अनदेखी की है तो फिर मुख्यधारा के मीडिया को पूरा दोष देना उचित नहीं है l उसे लगातार उच्च वर्ग और निजी हाथों में बनाये रखने के कुछ हद तक तो हम भी दोषी है l
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दलित मीडिया एडवोकेसी का उद्देश्य अपना स्वतन्त्र समाचार माध्यम खड़ा करना नहीं है बल्कि मुख्यधारा के मीडिया को सामाजिक सरोकारों की दिशा में ले जाने का प्रयास है…………..
इस संदर्भ में एक महत्वपूर्ण पक्ष यह भी है कि अधिकतर राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय दलित नेटवर्क, संगठन, एडवोकेसी प्लेटफार्म और आन्दोलनों को अपने काम काज़ के लिये संसाधनों हेतु विदेशी दानदाता संस्थानों पर निर्भर रहना पड़ता है जिनमें से अधिकतर (या लगभग सभी) के पास “ दलित मीडिया एडवोकेसी” के लिये न तो कोई प्रोग्राम है और न ही इच्छाशक्ति ! इसका एक पक्ष यह भी है कि इस मुद्दे के लिये दलित संगठनो ने कभी भी कोई ठोस तरीके से विदेशी दानदाता संस्थानों के सामने मांग नहीं या आवशयकता नहीं रखी है यहाँ तक कि किसी भी सरकार के सामने इस मुद्दे पर भी कोई प्रयास नहीं किया गया किया है .
इसके पीछे जो सबसे बड़ी गलतफहमी यह है कि “ मीडिया “ नाम आते ही सबके सामने पत्र / पत्रिका प्रकाशन या फिर दलित मुद्दों के प्रति समर्पित समाचार चैनल की परिकल्पना से आगे न सोच पाना एक बड़ा गतिरोध है . क्योंकि मीडिया के अंतर्गत आनेवाले पत्र / पत्रिका के प्रकाशन और समाचार चैनल के लिये विदेशी संस्थाओ से दान पर पूर्णरूप से प्रतिबन्ध है इस लिये विदेशी संस्थानों से सहयोग लेकर तमाम विभिन्न दलित मुद्दों पर काम करने वाले दलित संगठन अपने आप को असहाय महसूस करते हैं और इस दिशा में किसी भी तरह की पहलकदमी से बचते हैं. जबकि “ दलित मीडिया एडवोकेसी” का मीडिया के अंतर्गत आनेवाले पत्र/पत्रिका के प्रकाशन या समाचार चैनल से दूर दूर का कोई रिश्ता नहीं है.
दुर्भाग्यवश दलित संगठनो ने इस दिशा और इस मुद्दे को अभी समझने की दिशा में ही कोई भी और किसी भी स्तर पर कदम नहीं उठाया है.
“दलित मीडिया एडवोकेसी” अन्य दलित मुद्दों की ही तरह एक स्वतन्त्र पक्ष है जिसके लिये एक स्वतन्त्र पहलकदमी की आवशयकता है.
दलित मीडिया एडवोकेसी का मूल उद्देश्य है कि:
मुख्यधारा के मीडिया को जाति आधारित भेदभाव के प्रति संवेदनशील बनाना.
मुख्यधारा के मीडिया से जुड़े सभी पक्षों को दलित मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनाना.
मुख्यधारा के मीडिया को दलितों के मुद्दों के विभिन्न पक्षों से अवगत करते हुये उसकी दलित मुद्दों के प्रति स्पष्टता को प्रखर करना .
मुख्यधारा के मीडिया से सामंजस्य स्थापित करके दलित मुद्दों को उनके माध्यम से मुख्यधारा के समाज से संवाद कायम करना और देश के सामने जातिगत भेदभाव और सामाजिक विकृति की बहस को केन्द्र में लाना.
मुख्यधारा के मीडिया के माध्यम से मुख्यधारा के समाजों को दलित वर्ग मुद्दों के प्रति संवेदनशील बनाना
सबसे महत्वपूर्म कार्य यह है कि दलित मुद्दे से जुड़े ज़मीनी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं और नेतृत्व को मुख्यधारा के मीडिया के ढांचे, संरचना , कार्यशैली और समाचारों के लिये उनके माप दंडों के प्रति जागरूक और प्रशिक्षित और कुशल करना है.
दलित मुद्दे से जुड़े ज़मीनी आन्दोलन के कार्यकर्ताओं और नेतृत्व को मुख्यधारा के मीडिया के साथ संवाद स्थापित करने का कौशल प्रदान करना है.
सोशल मीडिया जैसे नये माधयमों के इस्तेमाल और उसके विभिन्न पक्षों से अवगत करना है .
सोचना यह होगा कि आखिर दलित आन्दोलन, संगठन राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर आवाज़ उठाते रहने के बावजूद इस मुद्दे पर चुप क्यों रहते हैं ?
मित्रों ! डॉ अम्बेडकर ने दलित और दबे कुचले वर्ग के अपने खुद के मीडिया को विकसित किये जाने पर बहुत जोर दिया था जो आज भी अपूर्ण उद्देश्य है . लेकिन हमें यह स्पष्ट होने चाहिए कि ऐसा कहते समय डॉ अम्बेडकर बहुत स्पष्ट थे. उनका मानना था कि अपना स्वयं का मीडिया हम सबको अपने ही समाज को जागरूक बनाने और उसे संगठित करने के लिये अति अवश्यक है. दलितों का अपना मीडिया हम सबके और हमारे समाजो के बीच एक संवाद और हमारे एकीकरण की प्रक्रिया का माध्यम होगा. जो जातिवाद के खिलाफ और समानता के आन्दोलन के लिये हम सबका संवाद माध्यम बनेगा.
लेकिन यदि हमें मुख्यधारा के समाजों से जाति के मुद्दे या जातिविहीन समाज के लिये संवाद करना होगा तो उसके लिये मुख्यधारा के मीडिया को ही संवाद का माध्यम बनाना होगा और उसे संवेदनशील बनाना होगा.
मुख्यधारा के मीडिया के निराशावादी रुख से हताशा दलित वर्ग का एक बहुत बड़ा हिस्सा निरंतर “ वैकल्पिक मीडिया “ की पैरवी करता है . हमें इस बिदु पर बहुत स्पष्टता की आवशयकता है. क्योंकि वैकल्पिक मीडिया मूल रूप से मुख्यधारा के मीडिया का विकल्प नहीं हो सकता है क्योंकि दोनों का उद्देश्य,विषय सामग्री, क्षेत्र और पाठक/ दर्शक वर्ग अलग अलग होता है एक सीमित दायरे के भीतर यह सामान भी हो सकता है.
वैकल्पिक मीडिया का एक तयशुदा निश्चित दायरा और पाठक / दर्शक वर्ग होता है जबकि मुख्यधारा के मीडिया का पाठक वर्ग बहुआयामी और अतिव्यापक होता है जो समाज के बहुत सारे या फिर सारे हिस्सा को एक साथ सम्बोधत, संवाद या सूचित करता है . मुख्यधारा का मीडिया समाज के अलग अलग हिस्सों को अलग अलग तरह से प्रभावित भी करता है .
वैकल्पिक मीडिया विभिन्न मुद्दों पर वैचारिक बहस चलने के लिये मूल रूप से समाज के संवेदनशील और जागरूक हिस्से को प्रभावित करके समाजक परिवर्तन का माध्यम है .
यह किसी के प्रति आरोप नहीं हैं बल्कि वह सवाल हैं जिसके जवाब हम सबको सामूहिक रूप से तलाशने होंगे l
यही वह खाली स्थान था जिसे आठ वर्ष पूर्व “ पिलुल्स मीडिया एडवोकेसी एंड रिसोर्स सेंटर – पी.ऍम.ए.आर.सी.” (Peoples Media advocacy & Resources Centre-PMARC) के माध्यम से हमने भरने का प्रयास किया था. तमाम राष्ट्रिय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाम पाने के बाद भी पूरे देश की एक मात्र “ दलित मीडिया एडवोकेसी “ संस्था संसाधनों के आभाव में अपने अंत के करीब है
मुफ्तखोरी की लत
विकल बेकार पुराने कलमबाज हैं लेकिन उनकी लफ्फाजी आमतौर पर संपादकों के पल्ले नहीं पड़ती, इसलिए उन्होंने छपास से तौबा कर लिया। मस्तमौला और हमेशा चलायमान होने की वजह से उनको अखबारों की नौकरी भी रास नहीं आई, सो अपने को बेकार घोषित करते हुए निकल पड़े देश की खाक छानने।...