632 ईसवी में पैगंबर मोहम्मद की मृत्यु हो गई। उन्होंने अपना उत्तराधिकारी नियुक्त नहीं किया था। उनकी मृत्यु के पश्चात यह सवाल खड़ा हो गया कि अब तेजी से फैलते इस्लाम धर्म का नेतृत्व किसके हाथ में होगा। कुछ लोगों ने नेता आम राय से चुनने की पैरवी की तो दूसरों का मत पैगंबर के किसी वंशज को ही खलीफा बनाने का था।
खलीफा का पद पैगंबर मोहम्मद के ससुर और विश्वासपात्र रहे अबु बकर को मिला जबकि कुछ लोग उनके चचेरे भाई और दामाद अली को नेतृत्व सौंपना चाहते थे। यहीं से ही विवाद शुरू हो गया। शिया सुन्नी संघर्ष में अब तक लाखों लोग जान गवां चुके हैं। भारत में भी शिया और सुन्नियों में विवाद हो जाता है खासक मोहर्रम के मौके पर।
अबु बकर और उनके दो उत्तराधिकारियों की मौत के बाद अली को खलीफा बनाया गया। लेकिन तब तक दोनों धड़ों में दुश्मनी बहुत गहरी हो चुकी थी। कुफा की मस्जिद में अली का कत्ल कर दिया गया। कुफा इराक में है। अली की मौत के बाद उनके बेटे हसन खलीफा बने। वे कुछ समय ही खलीफा रहे और फिर विरोधी धड़े के नेता माविया के लिए खलीफा का पद छोड़ दिया।
दोनों धड़ों में हुए सत्ता संघर्ष में हसन के भाई हुसैन और उनके बहुत से रिश्तेदारों को 680 में इराक के करबला में मार दिया गया। हुसैन की शहादत उनके अनुयायी का मुख्य सिद्धांत बन गई। हर साल मोहर्रम के महीने में शिया लोग मातमी जुलूस निकालते हैं और उस घटना पर शोक जताते हैं।
सुन्नी मानते हैं कि अली से पहले पद संभालने वाले तीनों खलीफा सही और पैगंबर की सुन्नाह यानी परंपरा के सच्चे अनुयायी थे। सुन्नाह यानी परंपरा को मानने वाले सुन्नी कहलाए जबकि शियाओं को उनका नाम “शियान अली” से मिला, जिसका अर्थ होता अली के अनुयायी। इस तरह दोनों की धड़ों का मूल एक ही है। लेकिन पैगंबर मोहम्मद के उत्तराधिकार और विरासत पर उनके रास्ते जुदा हो गए।
ईरान 1979 की इस्लामी क्रांति के बाद एक अहम शिया ताकत के तौर पर उभरा है जिसे सुन्नी सरकारें अपने लिए चुनौती समझती हैं। मध्य पूर्व में ईरान और सऊदी अरब को एक दूसरे का प्रतिद्वंद्वी माना जाता है! मध्य पूर्व के देशों के बीच अकसर शिया सुन्नी विवाद सियासत की धुरी होता है। ईरान जहां शिया विद्रोहियों और शासकों का समर्थन करता है, वहीं सऊदी अरब सुन्नी धड़े के साथ मजबूत से खड़ा रहता है। कूटनीतिक तनाव के बीच सऊदी अरब ने 2016 में ईरानी लोगों को अपने यहां हज पर भी नहीं आने दिया था!